Western Ghats
कौन उढ़ाता है धरती को
हरी भरी यह चादर
कौन ढके सलीके से
उसके उघड़े बदन को
कोई शहज़ादी सो रही
अपने सपनों में खोकर
बादलों दस्तक ना दो
उसके ख़्वाबों में आकर
सिकुड़ी हुई सी चादर
कहती हमसे शर्मा कर
रात गुज़री है शायद
करवटें बदल बदल कर
बहती हवा सरर सरर सर
अलग ही रंग जमाए
झाड़ियां पेड़ पौधे सारे
मस्ती में झूमें गाएं
बागानों में तैरते आवारा
कोहरे के बादल
मां ने उढ़ाया प्यार से
आंचल मेरे सिर पर
कमरे में घुटन इतनी है
चलो ना बाहर निकलें
सीली सीली सड़कों पर
खुली हवा में जी लें
गीली नरम घास है
जैसे गुदगुदा गलीचा
चलो न उस पर कूदें
घूमें नंगे कदम हम
कौन उढ़ाता है धरती को
हरी भरी यह चादर...
@ पुनीत पाठक
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Wah, a beautiful poem on one of my favourite scenes and situation
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