जाने किस सोच में खोया सा हूं मैं...
जाने किस सोच में खोया सा हूं मैं किन ख़यालात में डूबा उतराया अपनी ही सोच में गुम सा हूं मैं ज़िंदगी दहकता अंगार सा है उसके धूएं में सब धुंधला सा है धुएं को पी कर ख़ुश सा हूं मैं जाने किस सोच में खोया सा हूं मैं ज़िंदगी ने सवाल कितने किए हर क़दम प्रश्नचिन्ह प्रस्तुत किए जवाब सबके होना मुमकिन नहीं ढूंढने में मगर कोताई नहीं सवालों में ही कुछ उलझा सा हूं मैं जवाब ढूंढने में ही खोया हूं मैं उनके ही सोच में खोया सा हूं मैं ये अंगार जब बुझता सा लगे कुछ अजीब सा मुझको जो लगे ज़िंदगी ठंडी मुझको ना भाए दहकता शोला फिर उसपे रखूं मैं ज़िंदगी का नाम गर्मजोशी ज़िंदा रखने में ही मसरूफ़ हूं मैं इन्हीं सब में ही बस खोया हूं मैं देखो कितना ज़हर उगलती ये घड़ी भर को भी ना छोड़े है ये मगर मैं हूं कि जज़्ब कर रहा हूं ज़िंदगी का गरल बस पी रहा हूं नीलकंठ सा बस जी रहा हूं कब तलक जी पाऊंगा ऐसे ही मैं इन्हीं ख़यालों में खोया सा हूं मैं @ पुनीत पाठक
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